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अ॒यं क॒विरक॑विषु॒ प्रचे॑ता॒ मर्ते॑ष्व॒ग्निर॒मृतो॒ नि धा॑यि। स मा नो॒ अत्र॑ जुहुरः सहस्वः॒ सदा॒ त्वे सु॒मन॑सः स्याम ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayaṁ kavir akaviṣu pracetā marteṣv agnir amṛto ni dhāyi | sa mā no atra juhuraḥ sahasvaḥ sadā tve sumanasaḥ syāma ||

पद पाठ

अ॒यम्। क॒विः। अक॑विषु। प्रऽचे॑ताः। मर्ते॑षु। अ॒ग्निः। अ॒मृतः॑। नि। धा॒यि॒। सः। मा। नः॒। अत्र॑। जु॒हु॒रः॒। स॒ह॒स्वः॒। सदा॑। त्वे इति॑। सु॒ऽमन॑सः। स्या॒म॒ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:4» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

कौन विद्वान् अधिक कर विश्वास के योग्य हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सहस्वः) प्रशस्त बलवाले ! जो (अयम्) प्रत्यक्ष आप (अकविषु) न्यून बुद्धिवाले अविद्वानों में (कविः) तीव्र बुद्धियुक्त विद्वान् (मर्त्तेषु) मनुष्यों में (प्रचेताः) चेत करानेवाले (अग्निः) विद्युत् अग्नि के तुल्य (अमृतः) अपने स्वरूप से नाशरहित पुरुष को (नि, धायि) धारण करते हैं (सः) सो आप (अत्र) इस व्यवहार में (नः) हमको (मा) मत (जुहुरः) मारिये जिससे हम लोग (त्वे) आप में (सुमनसः) सुन्दर प्रसन्न चित्तवाले (सदा) सदा (स्याम) होवें ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो यह दीर्घ ब्रह्मचर्य के साथ विद्वानों से विद्या को ग्रहण करता है, वही विद्वान् प्रशंसित बुद्धिवाला, मनुष्यों में महान् कल्याणकारी हो। उसके प्रति सब मनुष्य यदि मित्रता से वर्तें तो अविद्वान् भी बुद्धिमान् होवें ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

को महान् विश्वसनीयो विद्वान् भवेदित्याह ॥

अन्वय:

हे सहस्वो ! योऽयं भवताऽकविषु कविर्मर्त्तेषु प्रचेता अग्निरिवाऽमृतो नि धायि स त्वमत्र नो मा जुहुरो यतो वयं त्वे सुमनसः सदा स्याम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) (कविः) क्रान्तप्रज्ञो विद्वान् (अकविषु) अक्रान्तप्रज्ञेष्वविद्वत्सु (प्रचेताः) प्रज्ञापयिता (मर्त्तेषु) मनुष्येषु (अग्निः) विद्युदिव (अमृतः) स्वस्वरूपेण नाशरहितः (नि) (धायि) निधीयते (सः) (मा) निषेधे (नः) अस्मान् (अत्र) अस्मिन् व्यवहारे (जुहुरः) हिंस्यात् (सहस्वः) प्रशस्तबलयुक्त (सदा) (त्वे) त्वयि (सुमनसः) (स्याम) ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! योऽयं दीर्घब्रह्मचर्येण विद्वद्भ्यो विद्या गृह्णाति स एव विद्वान् प्रशस्तधीर्मनुष्येषु महान् कल्याणकारकः स्यात्तं प्रति सर्वे मनुष्याः सुहृद्भावेन यदि वर्त्तेरंस्तर्ह्यविद्वांसोऽपि धीमन्तो भवेयुः ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो दीर्घ ब्रह्मचर्याने विद्वानांकडून विद्या ग्रहण करतो तोच विद्वान प्रशंसित बुद्धिमान, माणसांमध्ये महान कल्याणकारी असतो. त्याच्याबरोबर सर्व माणसांनी मैत्रीने वागल्यास अविद्वानही बुद्धिमान बनतील. ॥ ४ ॥